Tuesday, December 21, 2010

किताबों की दुनिया

जैसे किताबों की दुनिया अलग होती है उसी तरह उनसे उपजा विवाद भी अलग तरह का होता है। लेखक संकलन करता है। फिर उसके तथ्यों की समीक्षा करता है। इसके बाद वह किताब का टाइटल खोजता या सोचता है। तब कहीं जाकर एक किताब की थीम बनती है। जैसे-जैसे किताब के पन्न्े बढ़ते हैं लेखक का साहस और मजबूत होता जाता है। अब इन किताबों का बाजार या आम आदमी पर क्या असर होगा वह इस चीज को समय पर छोड़ देता है। जैसे ही उचित अवसर मिलता है। वह किताब आम आदमी के हवाले कर देता है। यह तो आम लेखक की बात होती है। पर हमारे देश की परंपरा कुछ हटकर है। यहां किताबें लिखने का शौके लेखकों के अतिरिक्त राजनीतिज्ञों को भी है। वह अपने शासन काल को याद करके किताबें लिखते हैं। जो बात आम आदमी तक नहीं पहुंची और वह रहस्य उसे उद्घाटित वह अपने किताब के माध्यम से करता है। दरअसल, वह किताब लिखने का काम याकि वृदधि अवस्था में करता है। या तो लूप लाइन में पहुंचने के बाद। अब आप सोचेंगे कि हमारे यहां बहुत सारे लेखक राजनीतिज्ञ हैं जो न तो बूढ़े हैं और न ही लूप लाइन में, फिर भी उन्होंने किताब लिखने की ठानी। तो दोस्तों मेरा अपना मत है कि जो बात वह कह नहीं सकते उसे महज किताबों का जरिया बनाकर कहते हैं। इससे उनके दो फायदे होते हैं। एक तो वे राजनीति के मैदान में चर्चित रहते हैं दूसरे अपने समकक्षियों को बिना कुछ ही निशाना बना लेते हैं। यदि राजनीतिक सरगर्मी बढ़ती है तो वे उसे इससे पल्ला झाड़ लेते हैं। और वे सफाई देने में जुट जाते हैं। कुछ ऐसे ही राजनीति पुरोधाओं के बारे में सुनिए

तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1 जुलाई 1954 को ही भारत-चीन सीमा पर बातचीत के दरवाजे बंद कर दिए थे। यह बात एजी नूरानी की नई किताब में कही गई है। किताब के मुताबिक पं। नेहरू ने बातचीत के सभी दरवाजे बंद कर दिए थे। 1960 में विवाद को खत्म करने के लिए भारत आए चाऊ एन लाई को भी टरका दिया था। इन दो घटनाओं के बाद भारत और चीन के बीच तनाव बढ़ा और 1962 में हुए भारत-चीन युद्ध की नींव पड़ी।

कानूनी मामलों के विशेषज्ञ एजी नूरानी सीमा संबंधित मसलों के विशेषज्ञ के रूप में भी जाने जाते हैं। नूरानी ने पुस्तक में पं। नेहरू के बयान को उद्धृत किया है, जिसमें उन्होंने कहा था 'हमारी अब तक की नीति और चीन से हुआ समझौता दोनों के आधार पर यह सीमा सुनिश्चित मानी जानी चाहिए। ऐसी जो किसी के साथ भी बातचीत के लिए खुली नहीं है। बहस के कुछ छोटे मसले हो सकते हैं, लेकिन वे भी हमारी ओर से नहीं उठाए जाने चाहिए।"

'इंडिया-चाइना बाउंडरी प्रॉब्लम (1846-1947) हिस्ट्री एंड डिप्लोमेसी" नाम की इस पुस्तक में बताया गया है कि भारत ने अपनी तरफ से आधिकारिक नक्शे में बदलाव किया गया था। 1948 और 1950 के नक्शों में पश्चिमी (कश्मीर) और मध्य सेक्टर (उत्तर प्रदेश) के जो हिस्से अपरिभाषित सीमा के रूप में दिखाए गए थे, वे इस बार गायब थे। 1954 के नक्शे में इनकी जगह साफ लाइन दिखाई गई थी।
किताब के मुताबिक 1 जुलाई 1954 का यह निर्देश 24 मार्च 1953 के उस फैसले पर आधारित था, जिसके मुताबिक सीमा के सवाल पर नई लाइन तय की जानी थी। किताब में कहा गया कि 'यह फैसला दुर्भाग्यपूर्ण था। पुराने नक्शे जला दिए गए।" एक पूर्व विदेश सचिव ने इस लेखक को बताया था कि कैसे एक जूनियर ऑफिसर होने के नाते खुद उन्हें भी उस मूर्खतापूर्ण कवायद का हिस्सा बनना पड़ा था। कयास लगाया जा रहा है कि वे पूर्व विदेश सचिव राम साठे ही थे, जो चीन में भारत के राजदूत भी रह चुके थे।

लेखक की जानकारी के मुताबिक नेहरू चाहते थे कि नए नक्शे विदेशों में भारतीय दूतावासों को भेजे जाएँ! इन्हें सार्वजनिक रूप से लोगों के सामने लाया जाए और स्कूल-कॉलेजों में भी इनका इस्तेमाल किया जाने लगे।

किताब में 22 मार्च 1959 को चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई के लिखे पत्र में नेहरू की हर बात को ' ऐतिहासिक रूप से गलत" बताते हुए नूरानी ने लिखा है कि 1950 तक भारतीय नक्शों में सीमा को अपरिभाषित बताया जाता था। जिन्नाा-इंडिया, पार्टीशन, इंडिपेंडेंटभारतीय जनता पार्टी के नेता जसवंतसिंह की मोहम्मद अली जिन्नाा पर लिखी किताब 'जिन्नाा-इंडिया, पार्टीशन, इंडिपेंडेंट" भी विवादों में घिरी रही। भाजपा ने तथ्यों पर उठे विवाद के कारण खुद को इस किताब से अलग कर लिया था। यहाँ तक कि लेखक जसवंतसिंह को भी भाजपा से निष्कासित कर दिया गया था, बाद में उन्हें पार्टी में ले भी लिया गया।

लज्जा और द्विखंडिताबांग्ला देश मूल की रहने वाली लेखिका तस्लीमा नसरीन को तो लगता है विवादों के कारण ही पहचान मिली है। 'लज्जा" और 'द्विखंडिता" जैसी उनकी किताबों ने मुस्लिम जगत में तूफान खड़ा कर दिया था। उन्होंने कई सालों से भारत में शरण ले रखी है।
माय कंट्री-माय लाइफभाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी की आत्मकथा 'माय कंट्री-माय लाइफ" के बारे में तात्कालिक प्रतिक्रिया काफी तीखी रही थी। आडवाणी पर आरोप लगाया गया था कि उन्होंने तथ्यों के साथ छेडछाड़ की है। उनके राजनीतिक विरोधियों ने इसे झूठ का पुलिंदा तक कहा। इसके बावजूद यह किताब काफी चर्चित हुई और खूब बिकी।
द सेटेनिक वर्सेजभारतीय मूल के ब्रिटिश लेखक सलमान रश्दी को अपनी किताब "द सेटेनिक वर्सेज" के कारण ही दुनियाभर में पहचाना जाता है। मुस्लिमों के बारे में कथित आपत्तिजनक टिप्पणियों के कारण इस किताब को भारत में प्रतिबंधित कर दिया गया था। उनके खिलाफ फतवा भी जारी किया गया और इसी कारण वे कई दिनों से छुपकर ब्रिटेन में रह रहे हैं।
अयोध्या 6 दिसंबर 1992अयोध्या पर पीवी नरसिंह राव की किताब भी चर्चित रही थी। यह किताब अयोध्या में जो घटा और जिन कारणों से घटा, उन पर तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव का नजरिया पेश करती है। संविधान की धारा 356 पर विस्तार से चर्चा करते हुए लेखक ने उन कारणों को बताने का प्रयास किया है, जिनके कारण उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू नहीं किया जा सकता था। नब्बे के दशक में लिखी गई यह किताब उनकी इच्छानुसार मरणोपरांत ही प्रकाशित की गई थी। यह पुस्तक आधुनिक इतिहास की एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना को समझने की दिशा में एक प्रयास है।
शिवाजी : हिन्दू किंग इन इस्लामिक इंडियाशिवाजी पर लिखी इतिहासकार जेम्स लेन की किताब "शिवाजी : हिन्दू किंग इन इस्लामिक इंडिया" को लेकर तो महाराष्ट्र में लोग सड़क पर उतर आए थे। मुंबई समेत कई शहरों में हिंसात्मक घटनाएँ तक हो गई थीं। इस किताब पर सबसे ज्यादा आपत्ति शिवसेना को थी।
इंडियन कंट्रोवर्सी" और अ सेक्यूलर एजेंडाजाने-माने अंग्रेजी पत्रकार और भाजपा नेता अरूण शौरी ने भी 'इंडियन कंट्रोवर्सी"और 'अ सेक्यूलर एजेंडा" जैसी किताबें लिखकर खुद को विवादों में फंसा लिया था। धर्म निरपेक्षता को तलाशती इन दो किताबों को राजनीतिक के साथ धार्मिक आलोचना भी झेलना पड़ी थी।इंडिया विन्स फ्रीडमआजाद भारत के जाने-माने नेता और शिक्षाविद् मौलाना अबुल कलाम आजाद की ये किताब लंबे समय तक प्रतिबंधित रही। इस किताब में देश की आजादी और बँटवारे को लेकर कुछ ऐसे प्रसंगों का उल्लेख किया गया था, जो कांग्रेस को नागवार गुजरे थे। फ्रीडम एट मिडनाइटदेश की आजादी और बँटवारे को आधार बनाकर डॉमिनिक लापियर और लौरी कोलिंस की इस किताब को तथ्यों के मामले में सबसे अधिकृत माना जाता है। कई मामलों में ये किताब काफी चर्चित भी रहीं। इस किताब ने आजादी के संघर्ष के दौरान देश के राजनीतिक हालात और बड़ेे नेताओं की भूमिका को काफी हद तक रेखांकित किया था। यही कारण था कि कांग्रेस ने इस किताब पर आँखें तरेरी थीं।ट्रुथ लव एंड अ लिटिल मैलिस जाने-माने स्तंभ लेखक खुशवंत सिंह ने अपनी इस आत्मकथा के जरिए भाजपा नेता मेनका गाँधी और इंदिरा गाँधी के रिश्तों पर कई आपत्तिजनक टिप्पणियाँ की थीं। मेनका ने उन पर मुकदमा भी दायर कर दिया था। इस कारण किताब का विमोचन कई साल लटका रहा। अ कॉल टू ऑनरयह भाजपा नेता जसवंत सिंह की पहली किताब थी। उनकी इस किताब (अ कॉल टू ऑनर) ने भी काफी विवाद खड़ा किया था। इसमें लेखक ने दावा किया था कि कांग्रेस के राज में प्रधानमंत्री के दफ्तर में एक विदेशी जासूस का डेरा रहता था। उन्होंने इस जासूस का नाम उजागर नहीं किया, पर उनकी इस टिप्पणी की राजनीतिक हलकों में खासी प्रतिक्रिया हुई थी। मोहि कहां विश्रामकांग्रेस नेता और राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले अर्जुनसिंह की आत्मकथा 'मोहि कहाँ विश्राम" का सबसे ज्यादा विरोध तो कांग्रेस के नेताओं ने ही किया। इस किताब में अर्जुनसिंह ने पार्टी की अंदरूनी हालत और अपनी उपेक्षा का उल्लेख किया था।द लास्ट मुगलमुगल काल के दौर के इतिहासकार विलियम डेलरिम्पल की किताबें भी विवादित रहीं हैं। विलियम डेलरिम्पल की 'द लास्ट मुगल" को 1857 पर लिखी गई किताब नहीं माना जा सका और इसी को लेकर विवाद भी हुआ! क्योंकि, यह किताब सिर्फ जफर और दिल्ली पर केंद्रित थी, बाकी हिन्दुस्तान के हालात का उसमें कहीं जिक्र तक नहीं आता! सच ए लांग जर्नीभारतीय मूल के कनाडाई लेखक रोहिंटन मिस्त्री की किताब 'सच ए लांग जर्नी" पर काफी विवाद उठा था। यह मसला शिवसेना की तरफ से उठाया गया था। यह किताब मुंबई विश्वविद्यालय में बीए के पाठ्यक्रम का हिस्सा थी। इसमें दक्षिणपंथियों के बारे में जो विचार व्यक्त किए गए हैं, वे शिवसेना को नागवार गुजरे। महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने भी इस मामले में शिवसेना का साथ दिया था।साभार: नई दुनिया

Saturday, December 18, 2010

सफर में सबसे आगे

राह और राही दानों ही एक दूसरे के पथिक होते हैं। यदि राही भटक रहा हो तो राह उसे सही दिशा में लाता है। और यदि राह भटक जाए तो राही उसे दुरुस्त करने का काम करता है। अब आप सोच कर परेशान न हों कि राह और राही के बीच में मैं आपकों झुला रखंूगा। बस थोड़ा सब्र करो मैं आपको मंजिल तक ले चलता हूं। गांव की बारात थी। ऊपर से बारिश का मौसम था। हम और हमारी मौसी का लड़का यानि रिश्ते का मौसेरा भाई दोनों ही बाइक से बारात का मजा लेने के लिए चल निकले। हमें शायद ही पता थ्ाा कि रास्ते में इतनी मुशीबतों का सामना करना पड़ेगा। पर हुआ ऐसा ही। पहली घटना- हम अपनी तैयारियों में इतने मशगूल हो गए कि समय का खयाल ही न रहा। और हम घर से ही देर से निकले ।ह।हल्की रिमझिम बारिश हो रही थी। बाइक में दोनों ही तेजी से मंजिल की ओर बढ़े जा रहे थे। रास्ते के खड्डे और कीचड़ ये सब हमारे सफर के गवाह बन रहे थे। इन्हीं गवाहों के बीच हमारे लिए पहली मुशीबत खड़ी हो गई। और बाइकी की हेडलाइट बिगड़ गई। फिर भी हम निराश नहीं हुए। और अपने अनुमान के मुताबिक चल रहे थे। कुछ ही किलोमीटर का सफर हुआ था और घ्ानघोर अंधेरा हो गया। अब हमें चारो ओर रास्ते दिखाई देने लगे। हम तय नहीं कर पा रहे थ्ो जाएं किस ओर । जहां भी हमें रोशनी दिखाई देती उसी ओर रुख कर लेते। अब हम बाइक पर नहीं पैदल चल रहे थे और बाइक हमारे लिए बोझ बन गई थी। उसे घसीटते हुए हम थकान से चूर हो गए। राहगीर और गांव वालों की मदद से हम धीरे-धीरे अपने जश्न वाले गांव के नजदीक पहुंच गए। दोनांें ही इस बात का पर चर्चा कर रहे थे कि मौसम अच्छा न हुआ तो अब कभी भी किसी की बारात में न जाएंगे। किसी कदर कीचड़ और रास्ते में भटकते हुए हम बारात वाले गांव गए। वहां देखा तो अंधेरा ही अंधेरा । ऐसा आलम देखकर बारिश से भीगे होने के बाद भी गर्मी लगने लगी और तो और जलालत भी महसूस हुई।फिर भी हम जनमास में पहुंचे । लोगों ने आवभगत में कोई कोर कसर न लगाई। चाय-नास्ता हुआ । खाना-पीना भी हुआ। अब तो आराम करने के लिए कोई सूखी जगह की तलाश थी पर वह नशीब न होने वाली थी।यह थी दूसरी हिट - बारात में पहुंचने के बाद जब बाइक स्टार्ट की तो एक ही किक में स्टार्ट हो गई और लाइट भी जल गई। यह देखकर अच्छा खासा हंसी मजाक हो गया। और रतजगा करने के बाद किसी भी तरीके से सुबह हुई। यह थी तीसरी हिट- बारात बिदा होने हम भी चले कि कुछ ही दूर में पेट्रोल खत्म हो गया। और हम पेट्रोल की तलाश में फिर पैदल चल निकल पड़े। दो किलोमीटी चलने के बाद हमें दुकान मिली । लेकिन उसके पास पेट्रोल नहीं था। वह घर से पेट्रोल लेकर आया और हमें दोगुने दाम पर पेट्रोल दिया। इस तरह हमारा न भूलने वाली बारात का सफर पूरा हुआ। दोनों ही घर पहुंचे। और अपनी मरम्मत में जुट गए। सबसे दयनीय हालत तो पैरों की थी, जिसे जूते भी न बचा पाए। काटों ने पैरों को जगह-जगह पर निशाना बनाया था । ये कांटे महीनों हमें बारात के जश्न की याद दिलाते रहे।

सचेत रहो

सुनने में अटपटा लगता है पर यह सच है कि सच्ची मेहनत और लगन से काम करने वाले को सफलता मिलती है। वजह कुछ भी हो, हकीकत मेहनत रंग लाती है। न किस्मत होती आर न ही पक्षपात, बस उसका काम उसे मुकाम दिला जाता है। हमारे पास बहुत सारे लोग हैं जो रह-रह कर किस्मत की बातें करते हैं। कहते हैं जब समय आएगा तो मनचाही कामना पूरी हो जाएगी। और यदि उनका यह जुमला एक दो बार हिट हो गया तो फिर वह तो पहले परिवार, फिर समाज और अंतत: देश यानि सभी के लिए उपदेश हो जाते हैं। पर कड़वी सच्चाई यह है कि ये जुमले हमेशा हर किसी के साथ हिट नहीं होते हैं। पर वह इन जुमलों से सीख लेता है और जुड़ जाता है उनके सुझाए रास्ते से। मैं यह नहीं कहता कि किसी के 'एक्सपीरियंस का विश्वास मत करो। सिर्फ इतना कहता हूं विश्वास करो तो सिर्फ और सिर्फ मेहनत का। 'हाल ही मेरे एक दोस्त ने ऊंची बुलंदियों को छुआ । मुझे बहुत अच्छा लगा -चलो अपने बीच का काई तो श्ािखर पर पहुंचायह घटना खुद के आत्मवलोकन के बाध्य भी कर सकती है। और हमारे लिए प्रेरणादायी भी हो सकती है। पर हमें इस कड़वी सच्चाई को देखना और मानना होगा। दोस्त की लगन तो देखी, पर उसे कभी अनुसरित नहीं किया। इस बात का गुमान कब तक रखूं। कभी न कभी तो अपने पैरों को आगे लाना होगा और सच्चाई से दो चार भी होना पड़ सकता है। तब क्या हमारे पास इन सारे सवालों को दोहराना का मौका मिलेगा या फिर वह समय हमारे पास लौट कर आएगा कि हम अपनी गलतियों को सुधार लें। बस इस आस के साथ कि हकीकत और सपने में फर्क कर मैं अपने समय का सदुपयोग करूंगा।

Thursday, May 20, 2010

सबसे जुदा

इस बार की गर्मी ने हमें सोचने पर मजबूर कर दिया है। अचानक ठंड का बढ़ना और असमय बारिश का होना तो मौसम का मिजाज होता है। लेकिन जब मिजाज हद से अधिक बदल जाएं हमें विचार जरूर करना चाहिए। यह हमारे और हमारी आने वाली पीढ़ी दोनों के लिए जरूरी है। कुछ लोग इसे टाइमपास मानते हैं और नकारा लोगों का काम कहकर इससे पीछा छुड़ाते हैं। लेकिन देखते ही देखते ये नकारा लोग कैसे काम के हो जाते हैं और टिप्पणी करने वालें ओंठों तले उंगली दबाने को मजबूर हो जाते हैं, नजारा बिल्कुल अद्भुत होता है। विषय से जुड़ते जाते हैं और अपने अुनभवों के आधार पर इस अनिश्चित होते मौसम के रुख में कुछ सुधार के प्रयास करते हैं क्योंकि हमारे हाथ में सिर्फ कोशिश करना है। और हम इसी कोशिश के आधार पर धरती को बचा सकते हैं। अविष्कारों के इस दौर ने हमें चकाचौंध और सुविधायुक्त जिंदगी दी है। इसने जटिल से जटिल कार्यों को आसान बनाने की तरकीब दी है । ऐसे में हमें इसका शुक्रगुजार होना चाहिए और इसको बदनाम होने से बचाना चाहिए। गाहे- बगाहे लोग कहते मिल जाते हैं कि इस बैज्ञानिक युग ने हमसे हमरा चैन- सुकून छीन लिया है। पर मुझे यह तर्क ठीक नहीं लगा। यह तो वही बात हुई ' उल्टा चोर कोतवाल को डाटे। मेरा मानना है कि हम जिस मुकाम पर हैं वह तकनीक का कमाल है। इसलिए इसको नजरंदाज करने की बजाय इसका सम्मान करें। और आरोपों की बजाय इसका सही इस्तेमाल करें। ऐसा करने से ही हमारे आसपास का मौसम और हमसब ठीकठाक रह पाएंगे।

Thursday, May 6, 2010

कब होगी फांसी


मुंबई हमले में गिरफ्तार एक मात्र जीवित पकड़े गए आतंकी कसाब को आखिर कब फांसी होगी। डेढ़ साल के इंतजार के बाद तो केवल फांसी की सजा हो पाई। इस दौरान मुंबई हमले के अन्य दोषियों तक हमारी सुरक्षा एजेंसियां पहुंच तक नहीं पाई। करोड़ों रुपए ख्ार्च करने के बाद आखिर हमें मिला क्या! वही, जो अन्य मामालों में होता है। हमने फैसला को सुना, थोड़ी खुशी मिली। लेकिन जितनी चाहिए अभी नहीं मिल पाई। कसाब के आतंक का शिकार हुए लोगों में एक उम्मीद जरूर बंध गई कि कसाब को कभी न कभी फांसी पर जरूर लटकाया जाएगा। हो न हो, हमारी भी यही उम्मीद है कि अब देर किए बिना उसे फांसी पर लटकाया जाए और विश्व को आतंक के खिलाफ मुहिम छेड़ने एक संदेश दिया जाय। यह हमारे न्यायतंत्र के लिए एक बड़ी उपलब्धि भी होगी।

कदम -कदम पर धोखा


कब और कौन सी घटना धोखे का रूप में परिवर्तित हो जाय, कहना मुश्किल है। आज की परिस्थिति तो लोगों को और ही संदिग्ध बना देती है। कहते हैं सभी का नजरिया अलग-अलग होता है। इन हालात में समाज के आइने में अपने को पाक साबित करना तो शायद बेहद कठिन है। हम जो भी करते हैं सबसे पहले अपना हित देखते हैं। इसके बाद अपने से जुड़े लोगों का और फिर समाज का। हो सकता है यहां पर हम गलत हों। दोस्त... इसमें मेरी कोई गलती नहीं, यह इस समाज और इसके कारिंदों की देन है। जो हमें समय-समय पर बदलने पर मजबूर करती है। हम समझ ही नहीं पाते कि किस रास्ते में जाएं और किसका साथ दें। ऐसे में हम समाज के उन लोगों में पहचाने जाने लगते हैं, जिन्हें लोग मक्कार, बेइमान और मतलबपरस्त समझते हैं। बेवजह ही हमेें इतनी उपाधियां मिल जाती हैं जिन्हें संभालने के लिए हमें कलेजा और मजबूत करना पड़ता है। ऐ दोस्त...देखो तो सही हम बात धोखे और फरेब की कर रहे थे और खुद ही टॉपिक से भटक गए थे , शायद ऐसे ही लोगों के कदम बहक जाते हैं। क्या इन हालात में उन्हंे गुनाहगार मानना सही होगा...........

Sunday, May 2, 2010

समय की ताकत

लोग अपनी फितरत के मुताबिक काम करते चले जाते हैं। वह खेलने की उम्र से खिलाने की उम्र तक पहंुच जाते हैं और उनकी आदत जस का तस रहती है। वह न तो अपने को बदलना चाहते हैं और न नही किसी तरह का परिवर्तन बर्दास्त करने की क्षमता रखते हैं। बात-बात पर गुस्सा करने जैसे उनकी पैतृक संपत्ति हो। वह अपने छोटों के साथ ऐसा व्यवहार करते हैं, जैसे कारागार में एक निरीक्षक कैदी से। इसका कोई विशेष कारण नहीं , बल्कि बर्चस्व की लड़ाई है। कहना तो उचित नहीं, लेकिन संदर्भ ऐसा है कि बगैर कहे बात समझाई नहीं जा सकती। 'हाल ही गुजरात के गिरि पार्क में बाघों के बढ़े हुए अनुमानित आकड़े दिए गए, जिसमें उनकी विकास गति और कम होती संख्या पर प्रकाश डाला गया। चौकाने वाली बात यह है कि बाघों की कम होती संख्या केवल और केवल बचर््ास्व की लड़ाई का नतीजा है।
जब चौपाए ऐसा करते हैं तो हम उन्हें जानवर कह पल्ला झाड़ लेते हैं। लेकिन यही काम जब मनुष्य करते हैं तो हम चुप्पी साध लेते हैं और कुंठित मानासिकता को प्रदर्शित करते हैं। अतएव दोस्तों हमें अपने किसी हित व अहित की चिंता हो या न हो , पर समय की चिंता जरूर करनी चाहिए। क्योंकि यह हमारे अतीत और भविष्य दोनों की कीर्ति का कारण बन सकता है।

Saturday, May 1, 2010

मॉ की बिदाई

जब मम्मी आई तो मन गदगद हो उठा। बीमाारी जैसे दो पल के लिए अंतरध्यान हो गई हो। पर ्जब जाने की तैयारियों में जुटा तो सब कुछ बिखरता नजर आया । ऐसा लगा कि पलभर के लिए मेरे पास कुछ नहीं । ऐसे में खुद को संभालना और उनकी बिदाई करना दोनो ही कठिन काम है। जैसे-जैसे वक्त बिदाई का आता, हम और भावुक होने लगते । सोचते, आज के बदले यदि कल जाओ तो कितना बढ़िया होगा। पर ऐसा होता कहां। अब तक तो टिकट बन चुका है और घर से निकलने की तैयारी है। बस आटोरिक्से के आने का इंतजार है। जैसे ही आटो पहंुचा, माता जी बैठकर रेलवे की ओर निकल पड़ीं। हम लोग भी उनकी बिदाई को यादगार बनाने के लिए कोई कसर थोड़ी छोड़ना चाहते थे। इसीलिए पहले से सारी तैयारियां शुरू कर दीं थी । लंच बाक्स से लेकर सोने और पीने के पानी का े बैग में पहले से ही व्यवस्थित कर दिया,जिससे सफर आसानी से कट जाए। अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए मम्मी को रिसीव करने वालों को इत्तला कर दी, जिससे समय पर पहंुच कर उन्हें घर तक ले जाएं। हमारे पास केवल उनके रहने की यादे बचती हैं और हम मन में सोचते हैं कि अब किसी भी अतिथि को न तो रिसीव करने जाएंगे और न ही उन्हें छोड़ने। क्योंकि रिसीव करने वाला पल जितनी खुशी का एहसास कराता है, ठीक उसके उलट छोड़ने वाला पल दुख का। मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि जीवन को जीने के लिए उसूलों से समझौता न करें, बल्कि उन वसूलों का सम्मान करें। ऐसा करने से हमारे जीवन में अनुशासन आएगा, जो हमारे ही समाज में हमें उचित स्थान दिलाने में महती भूमिका अदा करेगा।

Friday, April 30, 2010

यह कैसा दुख..?

हम बहुत लंबी -लंबी बाते करते हैं। ये कर देंगे, वो कर देंगे, हमें बताया नहीं, लेकिन जब वक्त आता है हमें कोई पुकारता है तो हम खुद को असहाय क्यों समझ बैठते हैं? उसकी मदद से अपने हाथ पीछे क्यों खींच लते हैं? यह हमारी मजबूरी है या हमारे काम करने का तरीका। ऐसे ही सोचते हम अपनों का मजाक बनते देखते हैं और कुढ़ते रहते हैं। काश! हम उसकी मदद कर पाते। बस यही शब्द हमें सात्वना प्रदान करते हैं और हम कुछ पल के लिए अपने को बड़ा मान बैठते हैं। कभी- कभी तो सारे दोष खुद के ऊपर लाद लेते हैं और सभी गलतियों का जिम्मेदार खुद को पाते हैं।

.......... तो क्या ऐसा करने से हमारे अपने की मदद हो पाएगी? वह सुखी कैसे बने इसके लिए हमें अपने सुख की थोड़ी सी तिलांजलि देनी ही होगी । यदि हम ऐसा नहीं करते तो शायद खुद और उसके साथ न्याय नहीं कर पाएंगे। कहने को समाज बड़ा है उसमें रहने वाले लोग बहुसंख्यक हैं पर क्या उनकी सोच पावन है। वह किसी को कुछ देना चाहते हैं, या खुद को दीनहीन या मशीहा मानते हैं। खैर.... यह तो समाज की कड़वी सच्चाई है कि बढ़ते हुए या विकास कर रहे लोगों की मदद के लिए सभी के हा थ आगे आते है , लेकिन जो वास्तव में गरीब है उसकी ओर न कोई देखना चाहता और नहीं उसकी मदद करना चाहता। ....फिर मेरे इस दोस्त की मदद कौन करेगा और कैसे बगैर मदद के उसकी स्थिति और परिस्थिति में सुधार होगा , बेहद चिंताजनक बात है।

Thursday, April 29, 2010

उठो तो सही

चलने फिरने के दिन है तो उसमें बैठे रहने से कुछ हासिल होने वाला नहीं। जो मंजिल है उसे हासिल करने के लिए दौड़ न सही, पर उठो तो सही। इसका आशय यह नहीं कि आप सो नहीं रहे , आप में क्षमता नहीं और कुछ करना का जज्बा भी नहीं। बस कमी है तो सिर्फ हौसेले की जो आपके खुद के भीतर है। आप चाहो तो उस जज्बे के साथ अपने को तरास सकते हो और अपनी मंजिल को अपने पास पा सकते हो............जैसे ही आपने कोशिश की, सफलता मिलने लगती है। आप थोड़ा और फिर थोड़ा कदम बढ़ाते जाते हो, ध्ाीरे- धीरे कदमों को सफलता के पीछे भागने की आदत पड़ जाती है। आप समझ ही नहीं पाते कि कब सफलता आपके पीछे भागने लगी।
....................... यह वही स्वर्णिम दौर होता है, जब लोग फर्श से अर्श में पहंच जाते हैं और दुनिया उनकी दीवानह हो जाती है। हमारे समाज में ऐसे ही कितने लोगों ने कीर्तिमान बनाए हैं,लेकिन उन्हें उनकी मनचाही सफलता नहीं मिली। उनके मन में कहीं न कहीं क्षोभ का भाव रह जाता है। कुछ लोगों के साथ तो इससे उलट वाकया घ्ाटित होता है। वह थोड़ी सी सफलता की उम्मीद करते हैं और उन्हें असीम सफलता मिल जाती है। ऐसे में हमारे कुछ साथी हैरान परेशान हो जाते हैं और अपने मार्ग से भटकने लगते हैं। पर दोस्तों मेरा मानना है कि किसी के भाग्य और कर्म को छीना नहीं नहीं जा सकता , बल्कि अपने ही कार्यों को तराशना उचित होगा।

बीमारी के बाद

शायद एक दो दिन की बीमारी हमें दूसरी दुनिया से अलग कर देती है। हम बिलकुल निष्क्रिय हो जाते हैं। और सोचते हैं की हमें तो कुछ पता ही नहीं। एइसा सिर्फ इसलिए होता है क्यूंकि हम रोजाना किसी न किसी बहाने या शायद दूसरों से अपने को बेहतर बनाने के लिए जानकारियों से जुड़ते हैं और बीमारी के समय तो सहानुभूति से ही काम चला लेते हैं।
लोगों का नजरिया भी बदला होता है। वह बीमार व्यक्ति को न तो छेड़ना चाहते हैं और न ही परेसान करना। बस उनका मकसद बीमार से मिलना एक फार्मालिटी होता है। वह मिले और चल दिए अपनी दुनिया में।
सो, अपने देखा थोड़े समय की निष्क्रियता ने आपको अपनों से, समाज से और खुद के ज्ञान से ही अलग कर दिया।
क्या आप एईसी जिल्लत भरी जिदगी jina चाहते हैं .........या कुछ और....... यदि और ..........तो अपडेट रहें .........

Tuesday, April 27, 2010

सफलता ही सब नहीं

दोस्तों दुनिया बड़ी है। यहाँ हर तरह से रहा और जिया जा सकता है पर यदि जीने के लिए उसूलों को अपना लिया जाये तो सायद ये जिन्दगी और इसका सफ़र रोमांचकारी हो जाये। हम देखते हैं की लोग भाहूत खुश हैं और हम थोड़े समय के लिए उदाश हो जाते हैं। हर कोई अपने से बड़े के पीछे भागता और सोचता है की मई आंगे जाना चाहता है पर वो पल कैसे मिले, इसके लिए तो हमें ही प्रयास करना होगा।

Thursday, March 18, 2010

कारबां ऐ जिंदगी

देखो तो सही हम किस तरह आगे जा रहे हैं। शायद आप को इसमें ख़ुशी मिले।
आप भी आगे और आगे भागने के लिए उतावले हों। शहर अपना, घर अपना , लोग अपने फिर मायूशी क्यूँ। देखो बढ़ने के लिए तो कई रस्ते हैं , जिन रास्तों को हमने अपनाया कुछ हद तक वो भी सही हैं। हम जानते हैं बेगानी सी जिन्दजी आप केवल अपने को प्यार करते है और करें भी क्यों न। हमारी आजादी, हमारी कामयाबी सभी हमारे आईने हैं । और इन्ही के सहारे हि हम दौड़ते हैं। निश्चय ही व्यक्ति को अपना खुद का सम्मान बनाये रखना चाहिए और दूसरे का सम्मान भी करना चाहिए।
.....................................शायद आपकी कोशिश भी यही हो।

Wednesday, March 17, 2010

कब और क्या

जब हम सोचते हैं की हम सही चल रहे हैं और हमारा कम भी सही है, तब वास्तविक रूप से सही नहीं होते हैं ।
हम किसी ना किसी परदे के पीछे होते हैं और हमारे विचार हमारे नहीं बल्कि लोगों के होते है।
हम उन लोगों से अपनी तुलना करते हैं और आगे बढ़ने के सारे रस्ते ही बंद कर देते हैं।
देखने की बात है की जिन विचारों को हम गुलदस्ते की भांति सजाते हैं उन्हें पलभर में ही छोड़ देते है। और एक नए विचार को पकड़ लेते हैं। जब ये हम समझ पाते हैं तब तक समय हमसे दूर चला जाता है और हम हाँथ पे हाँथ रखे रह जाते हैं।
इसलिए सोचने के पहले हमें दृढ निश्चय कर लेना चाहिए कीजो हम सोचेंगे वाही करेंगे ।
ऐसा करने से केवल और केवल सफलता का स्वाद चख पाएंगे।