Saturday, May 1, 2010
मॉ की बिदाई
जब मम्मी आई तो मन गदगद हो उठा। बीमाारी जैसे दो पल के लिए अंतरध्यान हो गई हो। पर ्जब जाने की तैयारियों में जुटा तो सब कुछ बिखरता नजर आया । ऐसा लगा कि पलभर के लिए मेरे पास कुछ नहीं । ऐसे में खुद को संभालना और उनकी बिदाई करना दोनो ही कठिन काम है। जैसे-जैसे वक्त बिदाई का आता, हम और भावुक होने लगते । सोचते, आज के बदले यदि कल जाओ तो कितना बढ़िया होगा। पर ऐसा होता कहां। अब तक तो टिकट बन चुका है और घर से निकलने की तैयारी है। बस आटोरिक्से के आने का इंतजार है। जैसे ही आटो पहंुचा, माता जी बैठकर रेलवे की ओर निकल पड़ीं। हम लोग भी उनकी बिदाई को यादगार बनाने के लिए कोई कसर थोड़ी छोड़ना चाहते थे। इसीलिए पहले से सारी तैयारियां शुरू कर दीं थी । लंच बाक्स से लेकर सोने और पीने के पानी का े बैग में पहले से ही व्यवस्थित कर दिया,जिससे सफर आसानी से कट जाए। अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए मम्मी को रिसीव करने वालों को इत्तला कर दी, जिससे समय पर पहंुच कर उन्हें घर तक ले जाएं। हमारे पास केवल उनके रहने की यादे बचती हैं और हम मन में सोचते हैं कि अब किसी भी अतिथि को न तो रिसीव करने जाएंगे और न ही उन्हें छोड़ने। क्योंकि रिसीव करने वाला पल जितनी खुशी का एहसास कराता है, ठीक उसके उलट छोड़ने वाला पल दुख का। मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि जीवन को जीने के लिए उसूलों से समझौता न करें, बल्कि उन वसूलों का सम्मान करें। ऐसा करने से हमारे जीवन में अनुशासन आएगा, जो हमारे ही समाज में हमें उचित स्थान दिलाने में महती भूमिका अदा करेगा।
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