Sunday, May 2, 2010

समय की ताकत

लोग अपनी फितरत के मुताबिक काम करते चले जाते हैं। वह खेलने की उम्र से खिलाने की उम्र तक पहंुच जाते हैं और उनकी आदत जस का तस रहती है। वह न तो अपने को बदलना चाहते हैं और न नही किसी तरह का परिवर्तन बर्दास्त करने की क्षमता रखते हैं। बात-बात पर गुस्सा करने जैसे उनकी पैतृक संपत्ति हो। वह अपने छोटों के साथ ऐसा व्यवहार करते हैं, जैसे कारागार में एक निरीक्षक कैदी से। इसका कोई विशेष कारण नहीं , बल्कि बर्चस्व की लड़ाई है। कहना तो उचित नहीं, लेकिन संदर्भ ऐसा है कि बगैर कहे बात समझाई नहीं जा सकती। 'हाल ही गुजरात के गिरि पार्क में बाघों के बढ़े हुए अनुमानित आकड़े दिए गए, जिसमें उनकी विकास गति और कम होती संख्या पर प्रकाश डाला गया। चौकाने वाली बात यह है कि बाघों की कम होती संख्या केवल और केवल बचर््ास्व की लड़ाई का नतीजा है।
जब चौपाए ऐसा करते हैं तो हम उन्हें जानवर कह पल्ला झाड़ लेते हैं। लेकिन यही काम जब मनुष्य करते हैं तो हम चुप्पी साध लेते हैं और कुंठित मानासिकता को प्रदर्शित करते हैं। अतएव दोस्तों हमें अपने किसी हित व अहित की चिंता हो या न हो , पर समय की चिंता जरूर करनी चाहिए। क्योंकि यह हमारे अतीत और भविष्य दोनों की कीर्ति का कारण बन सकता है।

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