Sunday, September 18, 2011

आंखों ही आखों में


कुद यूं ही हमारा भी सफर शुरू हुआ। छोटा सा ख्वाब था कि पढ़ाई पूरी होने के बाद सरकारी नौकरी करूंगा। इसके बाद फॉरेन ट्रिप। लगातार हम आगे बढ़ते रहे और इस तरह पढ़ाई पूरी हुई आर हम नौकरी में भी लग गए। इस तरह छोटा सा ख्वाब बड़ा हो गया। बदल गए मायने, अब हम अपने और परिवार के लोगों के बारे सोचने लगे। हमारी तरक्की के रूप में शादी हुई,  रिश्तेदार बढ़े, आमदनी बढ़ी। पर नजरिया जस का तस।
सोचने पर पता चलता कि जो हमने सोचा और जिस तरह से मिला वह मेहनत नहीं बल्कि समाज का उपहार है। इसी को गहराई से विचार करने पर लगा कि यह तो सब अपने आप हो गया। पर जब इसे दूसरे लोगों से पूछा तो पता लगा कि यह सब आमबात है और विकास का इससे कोई दूर-दूर तक का वास्ता नहीं।
सच्चाई और उसकी परख खुद से दूर करने का एक कारण बन न जाए, कोई नई उलझन तैयार न हो इसके लिए हमने एक विराम लिया।
उसे कह दिया नौकरी का स्थायित्व, पर यह हकीकत कतई न थी बल्कि विवश्ाता की एक परिभाषा बन रही थी। अब हम जो सोचते, उसे लोगों पर मढ़ने की कोशिश करते, इसकी वजह से हमारा बौद्धिक विकास होना बंद हो गया। क्योंकि हम तो हम हैं। पैसे मिल रहे हैं, खा रहे है .....अच्छे से रह हैं! बस इतनी सी दुनिया तक सीमित रह गए।
कभी उस ख्वाब की ओर नजर उठाकर देखने की कोशिश भी न की।
नतीजा सामने है जहां से चले वहीं ठहर गए। .............. फिर क्या.............