Friday, April 30, 2010

यह कैसा दुख..?

हम बहुत लंबी -लंबी बाते करते हैं। ये कर देंगे, वो कर देंगे, हमें बताया नहीं, लेकिन जब वक्त आता है हमें कोई पुकारता है तो हम खुद को असहाय क्यों समझ बैठते हैं? उसकी मदद से अपने हाथ पीछे क्यों खींच लते हैं? यह हमारी मजबूरी है या हमारे काम करने का तरीका। ऐसे ही सोचते हम अपनों का मजाक बनते देखते हैं और कुढ़ते रहते हैं। काश! हम उसकी मदद कर पाते। बस यही शब्द हमें सात्वना प्रदान करते हैं और हम कुछ पल के लिए अपने को बड़ा मान बैठते हैं। कभी- कभी तो सारे दोष खुद के ऊपर लाद लेते हैं और सभी गलतियों का जिम्मेदार खुद को पाते हैं।

.......... तो क्या ऐसा करने से हमारे अपने की मदद हो पाएगी? वह सुखी कैसे बने इसके लिए हमें अपने सुख की थोड़ी सी तिलांजलि देनी ही होगी । यदि हम ऐसा नहीं करते तो शायद खुद और उसके साथ न्याय नहीं कर पाएंगे। कहने को समाज बड़ा है उसमें रहने वाले लोग बहुसंख्यक हैं पर क्या उनकी सोच पावन है। वह किसी को कुछ देना चाहते हैं, या खुद को दीनहीन या मशीहा मानते हैं। खैर.... यह तो समाज की कड़वी सच्चाई है कि बढ़ते हुए या विकास कर रहे लोगों की मदद के लिए सभी के हा थ आगे आते है , लेकिन जो वास्तव में गरीब है उसकी ओर न कोई देखना चाहता और नहीं उसकी मदद करना चाहता। ....फिर मेरे इस दोस्त की मदद कौन करेगा और कैसे बगैर मदद के उसकी स्थिति और परिस्थिति में सुधार होगा , बेहद चिंताजनक बात है।

Thursday, April 29, 2010

उठो तो सही

चलने फिरने के दिन है तो उसमें बैठे रहने से कुछ हासिल होने वाला नहीं। जो मंजिल है उसे हासिल करने के लिए दौड़ न सही, पर उठो तो सही। इसका आशय यह नहीं कि आप सो नहीं रहे , आप में क्षमता नहीं और कुछ करना का जज्बा भी नहीं। बस कमी है तो सिर्फ हौसेले की जो आपके खुद के भीतर है। आप चाहो तो उस जज्बे के साथ अपने को तरास सकते हो और अपनी मंजिल को अपने पास पा सकते हो............जैसे ही आपने कोशिश की, सफलता मिलने लगती है। आप थोड़ा और फिर थोड़ा कदम बढ़ाते जाते हो, ध्ाीरे- धीरे कदमों को सफलता के पीछे भागने की आदत पड़ जाती है। आप समझ ही नहीं पाते कि कब सफलता आपके पीछे भागने लगी।
....................... यह वही स्वर्णिम दौर होता है, जब लोग फर्श से अर्श में पहंच जाते हैं और दुनिया उनकी दीवानह हो जाती है। हमारे समाज में ऐसे ही कितने लोगों ने कीर्तिमान बनाए हैं,लेकिन उन्हें उनकी मनचाही सफलता नहीं मिली। उनके मन में कहीं न कहीं क्षोभ का भाव रह जाता है। कुछ लोगों के साथ तो इससे उलट वाकया घ्ाटित होता है। वह थोड़ी सी सफलता की उम्मीद करते हैं और उन्हें असीम सफलता मिल जाती है। ऐसे में हमारे कुछ साथी हैरान परेशान हो जाते हैं और अपने मार्ग से भटकने लगते हैं। पर दोस्तों मेरा मानना है कि किसी के भाग्य और कर्म को छीना नहीं नहीं जा सकता , बल्कि अपने ही कार्यों को तराशना उचित होगा।

बीमारी के बाद

शायद एक दो दिन की बीमारी हमें दूसरी दुनिया से अलग कर देती है। हम बिलकुल निष्क्रिय हो जाते हैं। और सोचते हैं की हमें तो कुछ पता ही नहीं। एइसा सिर्फ इसलिए होता है क्यूंकि हम रोजाना किसी न किसी बहाने या शायद दूसरों से अपने को बेहतर बनाने के लिए जानकारियों से जुड़ते हैं और बीमारी के समय तो सहानुभूति से ही काम चला लेते हैं।
लोगों का नजरिया भी बदला होता है। वह बीमार व्यक्ति को न तो छेड़ना चाहते हैं और न ही परेसान करना। बस उनका मकसद बीमार से मिलना एक फार्मालिटी होता है। वह मिले और चल दिए अपनी दुनिया में।
सो, अपने देखा थोड़े समय की निष्क्रियता ने आपको अपनों से, समाज से और खुद के ज्ञान से ही अलग कर दिया।
क्या आप एईसी जिल्लत भरी जिदगी jina चाहते हैं .........या कुछ और....... यदि और ..........तो अपडेट रहें .........

Tuesday, April 27, 2010

सफलता ही सब नहीं

दोस्तों दुनिया बड़ी है। यहाँ हर तरह से रहा और जिया जा सकता है पर यदि जीने के लिए उसूलों को अपना लिया जाये तो सायद ये जिन्दगी और इसका सफ़र रोमांचकारी हो जाये। हम देखते हैं की लोग भाहूत खुश हैं और हम थोड़े समय के लिए उदाश हो जाते हैं। हर कोई अपने से बड़े के पीछे भागता और सोचता है की मई आंगे जाना चाहता है पर वो पल कैसे मिले, इसके लिए तो हमें ही प्रयास करना होगा।