हम बहुत लंबी -लंबी बाते करते हैं। ये कर देंगे, वो कर देंगे, हमें बताया नहीं, लेकिन जब वक्त आता है हमें कोई पुकारता है तो हम खुद को असहाय क्यों समझ बैठते हैं? उसकी मदद से अपने हाथ पीछे क्यों खींच लते हैं? यह हमारी मजबूरी है या हमारे काम करने का तरीका। ऐसे ही सोचते हम अपनों का मजाक बनते देखते हैं और कुढ़ते रहते हैं। काश! हम उसकी मदद कर पाते। बस यही शब्द हमें सात्वना प्रदान करते हैं और हम कुछ पल के लिए अपने को बड़ा मान बैठते हैं। कभी- कभी तो सारे दोष खुद के ऊपर लाद लेते हैं और सभी गलतियों का जिम्मेदार खुद को पाते हैं।
.......... तो क्या ऐसा करने से हमारे अपने की मदद हो पाएगी? वह सुखी कैसे बने इसके लिए हमें अपने सुख की थोड़ी सी तिलांजलि देनी ही होगी । यदि हम ऐसा नहीं करते तो शायद खुद और उसके साथ न्याय नहीं कर पाएंगे। कहने को समाज बड़ा है उसमें रहने वाले लोग बहुसंख्यक हैं पर क्या उनकी सोच पावन है। वह किसी को कुछ देना चाहते हैं, या खुद को दीनहीन या मशीहा मानते हैं। खैर.... यह तो समाज की कड़वी सच्चाई है कि बढ़ते हुए या विकास कर रहे लोगों की मदद के लिए सभी के हा थ आगे आते है , लेकिन जो वास्तव में गरीब है उसकी ओर न कोई देखना चाहता और नहीं उसकी मदद करना चाहता। ....फिर मेरे इस दोस्त की मदद कौन करेगा और कैसे बगैर मदद के उसकी स्थिति और परिस्थिति में सुधार होगा , बेहद चिंताजनक बात है।