Thursday, April 29, 2010

उठो तो सही

चलने फिरने के दिन है तो उसमें बैठे रहने से कुछ हासिल होने वाला नहीं। जो मंजिल है उसे हासिल करने के लिए दौड़ न सही, पर उठो तो सही। इसका आशय यह नहीं कि आप सो नहीं रहे , आप में क्षमता नहीं और कुछ करना का जज्बा भी नहीं। बस कमी है तो सिर्फ हौसेले की जो आपके खुद के भीतर है। आप चाहो तो उस जज्बे के साथ अपने को तरास सकते हो और अपनी मंजिल को अपने पास पा सकते हो............जैसे ही आपने कोशिश की, सफलता मिलने लगती है। आप थोड़ा और फिर थोड़ा कदम बढ़ाते जाते हो, ध्ाीरे- धीरे कदमों को सफलता के पीछे भागने की आदत पड़ जाती है। आप समझ ही नहीं पाते कि कब सफलता आपके पीछे भागने लगी।
....................... यह वही स्वर्णिम दौर होता है, जब लोग फर्श से अर्श में पहंच जाते हैं और दुनिया उनकी दीवानह हो जाती है। हमारे समाज में ऐसे ही कितने लोगों ने कीर्तिमान बनाए हैं,लेकिन उन्हें उनकी मनचाही सफलता नहीं मिली। उनके मन में कहीं न कहीं क्षोभ का भाव रह जाता है। कुछ लोगों के साथ तो इससे उलट वाकया घ्ाटित होता है। वह थोड़ी सी सफलता की उम्मीद करते हैं और उन्हें असीम सफलता मिल जाती है। ऐसे में हमारे कुछ साथी हैरान परेशान हो जाते हैं और अपने मार्ग से भटकने लगते हैं। पर दोस्तों मेरा मानना है कि किसी के भाग्य और कर्म को छीना नहीं नहीं जा सकता , बल्कि अपने ही कार्यों को तराशना उचित होगा।

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