Thursday, May 20, 2010

सबसे जुदा

इस बार की गर्मी ने हमें सोचने पर मजबूर कर दिया है। अचानक ठंड का बढ़ना और असमय बारिश का होना तो मौसम का मिजाज होता है। लेकिन जब मिजाज हद से अधिक बदल जाएं हमें विचार जरूर करना चाहिए। यह हमारे और हमारी आने वाली पीढ़ी दोनों के लिए जरूरी है। कुछ लोग इसे टाइमपास मानते हैं और नकारा लोगों का काम कहकर इससे पीछा छुड़ाते हैं। लेकिन देखते ही देखते ये नकारा लोग कैसे काम के हो जाते हैं और टिप्पणी करने वालें ओंठों तले उंगली दबाने को मजबूर हो जाते हैं, नजारा बिल्कुल अद्भुत होता है। विषय से जुड़ते जाते हैं और अपने अुनभवों के आधार पर इस अनिश्चित होते मौसम के रुख में कुछ सुधार के प्रयास करते हैं क्योंकि हमारे हाथ में सिर्फ कोशिश करना है। और हम इसी कोशिश के आधार पर धरती को बचा सकते हैं। अविष्कारों के इस दौर ने हमें चकाचौंध और सुविधायुक्त जिंदगी दी है। इसने जटिल से जटिल कार्यों को आसान बनाने की तरकीब दी है । ऐसे में हमें इसका शुक्रगुजार होना चाहिए और इसको बदनाम होने से बचाना चाहिए। गाहे- बगाहे लोग कहते मिल जाते हैं कि इस बैज्ञानिक युग ने हमसे हमरा चैन- सुकून छीन लिया है। पर मुझे यह तर्क ठीक नहीं लगा। यह तो वही बात हुई ' उल्टा चोर कोतवाल को डाटे। मेरा मानना है कि हम जिस मुकाम पर हैं वह तकनीक का कमाल है। इसलिए इसको नजरंदाज करने की बजाय इसका सम्मान करें। और आरोपों की बजाय इसका सही इस्तेमाल करें। ऐसा करने से ही हमारे आसपास का मौसम और हमसब ठीकठाक रह पाएंगे।

Thursday, May 6, 2010

कब होगी फांसी


मुंबई हमले में गिरफ्तार एक मात्र जीवित पकड़े गए आतंकी कसाब को आखिर कब फांसी होगी। डेढ़ साल के इंतजार के बाद तो केवल फांसी की सजा हो पाई। इस दौरान मुंबई हमले के अन्य दोषियों तक हमारी सुरक्षा एजेंसियां पहुंच तक नहीं पाई। करोड़ों रुपए ख्ार्च करने के बाद आखिर हमें मिला क्या! वही, जो अन्य मामालों में होता है। हमने फैसला को सुना, थोड़ी खुशी मिली। लेकिन जितनी चाहिए अभी नहीं मिल पाई। कसाब के आतंक का शिकार हुए लोगों में एक उम्मीद जरूर बंध गई कि कसाब को कभी न कभी फांसी पर जरूर लटकाया जाएगा। हो न हो, हमारी भी यही उम्मीद है कि अब देर किए बिना उसे फांसी पर लटकाया जाए और विश्व को आतंक के खिलाफ मुहिम छेड़ने एक संदेश दिया जाय। यह हमारे न्यायतंत्र के लिए एक बड़ी उपलब्धि भी होगी।

कदम -कदम पर धोखा


कब और कौन सी घटना धोखे का रूप में परिवर्तित हो जाय, कहना मुश्किल है। आज की परिस्थिति तो लोगों को और ही संदिग्ध बना देती है। कहते हैं सभी का नजरिया अलग-अलग होता है। इन हालात में समाज के आइने में अपने को पाक साबित करना तो शायद बेहद कठिन है। हम जो भी करते हैं सबसे पहले अपना हित देखते हैं। इसके बाद अपने से जुड़े लोगों का और फिर समाज का। हो सकता है यहां पर हम गलत हों। दोस्त... इसमें मेरी कोई गलती नहीं, यह इस समाज और इसके कारिंदों की देन है। जो हमें समय-समय पर बदलने पर मजबूर करती है। हम समझ ही नहीं पाते कि किस रास्ते में जाएं और किसका साथ दें। ऐसे में हम समाज के उन लोगों में पहचाने जाने लगते हैं, जिन्हें लोग मक्कार, बेइमान और मतलबपरस्त समझते हैं। बेवजह ही हमेें इतनी उपाधियां मिल जाती हैं जिन्हें संभालने के लिए हमें कलेजा और मजबूत करना पड़ता है। ऐ दोस्त...देखो तो सही हम बात धोखे और फरेब की कर रहे थे और खुद ही टॉपिक से भटक गए थे , शायद ऐसे ही लोगों के कदम बहक जाते हैं। क्या इन हालात में उन्हंे गुनाहगार मानना सही होगा...........

Sunday, May 2, 2010

समय की ताकत

लोग अपनी फितरत के मुताबिक काम करते चले जाते हैं। वह खेलने की उम्र से खिलाने की उम्र तक पहंुच जाते हैं और उनकी आदत जस का तस रहती है। वह न तो अपने को बदलना चाहते हैं और न नही किसी तरह का परिवर्तन बर्दास्त करने की क्षमता रखते हैं। बात-बात पर गुस्सा करने जैसे उनकी पैतृक संपत्ति हो। वह अपने छोटों के साथ ऐसा व्यवहार करते हैं, जैसे कारागार में एक निरीक्षक कैदी से। इसका कोई विशेष कारण नहीं , बल्कि बर्चस्व की लड़ाई है। कहना तो उचित नहीं, लेकिन संदर्भ ऐसा है कि बगैर कहे बात समझाई नहीं जा सकती। 'हाल ही गुजरात के गिरि पार्क में बाघों के बढ़े हुए अनुमानित आकड़े दिए गए, जिसमें उनकी विकास गति और कम होती संख्या पर प्रकाश डाला गया। चौकाने वाली बात यह है कि बाघों की कम होती संख्या केवल और केवल बचर््ास्व की लड़ाई का नतीजा है।
जब चौपाए ऐसा करते हैं तो हम उन्हें जानवर कह पल्ला झाड़ लेते हैं। लेकिन यही काम जब मनुष्य करते हैं तो हम चुप्पी साध लेते हैं और कुंठित मानासिकता को प्रदर्शित करते हैं। अतएव दोस्तों हमें अपने किसी हित व अहित की चिंता हो या न हो , पर समय की चिंता जरूर करनी चाहिए। क्योंकि यह हमारे अतीत और भविष्य दोनों की कीर्ति का कारण बन सकता है।

Saturday, May 1, 2010

मॉ की बिदाई

जब मम्मी आई तो मन गदगद हो उठा। बीमाारी जैसे दो पल के लिए अंतरध्यान हो गई हो। पर ्जब जाने की तैयारियों में जुटा तो सब कुछ बिखरता नजर आया । ऐसा लगा कि पलभर के लिए मेरे पास कुछ नहीं । ऐसे में खुद को संभालना और उनकी बिदाई करना दोनो ही कठिन काम है। जैसे-जैसे वक्त बिदाई का आता, हम और भावुक होने लगते । सोचते, आज के बदले यदि कल जाओ तो कितना बढ़िया होगा। पर ऐसा होता कहां। अब तक तो टिकट बन चुका है और घर से निकलने की तैयारी है। बस आटोरिक्से के आने का इंतजार है। जैसे ही आटो पहंुचा, माता जी बैठकर रेलवे की ओर निकल पड़ीं। हम लोग भी उनकी बिदाई को यादगार बनाने के लिए कोई कसर थोड़ी छोड़ना चाहते थे। इसीलिए पहले से सारी तैयारियां शुरू कर दीं थी । लंच बाक्स से लेकर सोने और पीने के पानी का े बैग में पहले से ही व्यवस्थित कर दिया,जिससे सफर आसानी से कट जाए। अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए मम्मी को रिसीव करने वालों को इत्तला कर दी, जिससे समय पर पहंुच कर उन्हें घर तक ले जाएं। हमारे पास केवल उनके रहने की यादे बचती हैं और हम मन में सोचते हैं कि अब किसी भी अतिथि को न तो रिसीव करने जाएंगे और न ही उन्हें छोड़ने। क्योंकि रिसीव करने वाला पल जितनी खुशी का एहसास कराता है, ठीक उसके उलट छोड़ने वाला पल दुख का। मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि जीवन को जीने के लिए उसूलों से समझौता न करें, बल्कि उन वसूलों का सम्मान करें। ऐसा करने से हमारे जीवन में अनुशासन आएगा, जो हमारे ही समाज में हमें उचित स्थान दिलाने में महती भूमिका अदा करेगा।