
सबसे अहम बात यह है कि इस तरह की आम आदमी की क्यों हुई । वह ऐसे क्यों बदल गया। क्या उसकी मजबूरियों ने उसे तोड़ दिया या फिर उसने विलासिता के चक्कर में यह सब स्वीकार कर लिया । यदि मजबूरी है तो इसका इलाज संभव है और यदि विलासिता है तो इसका कोई निदान नहीं।
हम सब जानते हैं कि हम जितना विलासी होंगे और पाने की इच्छा का अंत नहीं होगा बल्कि वह ड्रैगन की तरह मुंह ख्ोलती जाएगी और आप उसमें धंसते जाएंगे। जानते हुए भी हमारी आदत नहीं बदली और बस कुछ पलभर की खुशी के लिए जमाने के सुकून को आग के हवाले कर दिया । इसे अपनी तृप्ति और दूसरों की हार का नाम दे दिया। क्या हमारा यही कर्तव्य है ? क्या हमें समाज में कुछ और करने का या उसे कुछ अच्छा प्रदान करने की जरूरत नहीं? ये ऐसे सवाल हैं जो हर आदमी के मन में कभी न कभी आते हैं। वह इनसे विचलित भी होता है लेकिन सही मार्गदर्शन न होने की वजह से भृमित हो जाता है।