Saturday, June 27, 2015

मौसम हुआ सुहाना

पूरे देश में मानसून सक्रिय हो चुका है। वादियों के नजारे बदलने लगे हैं। सूखी और पथरीली जमीन हरी भरी झाड़ियों से ढक गई है। ऐसा लग रहा है मानो उस पर कोई हरी परत चढ़ा दी गई हो। पर ऐसे ही हालात हर जगह नहीं। कुछ जगहों पर तो नदियों और झरनों ने विकराल रूप धारण कर लिया है। वहां जनजीवन कठिन हो गया है। लोग एक जगह से दूसरी जगह पर पलायन को  मजबूर हैं। देवभूमि उत्तराखंड में तो इन सबसे    अलग हालात हैं। यहां चारों ओर से नदियों ने बस्तियों और शहरों को कैद कर लिया है। न कोई कहीं जा सकता है और न ही सुहाने मौसम का मजा ले सकता  है। कहा जाय तो हर क्षेत्र में अलग. अलग तरह का मिजाज दिख रहा है। बुंदेलखंड और राजस्थान जैसे इलाके पानी को तरस रहे हैं तो महाराष्ट्रए असम और उत्तराखंड के क्षेत्र जलमग्न हो गए हैं। कुदरत का यह नजारा हमारे लिए अनेकों संदेश लेकर आया है। हमें इसे समझने में देर करने की बजाय गंभीरता सेे  लेना चाहिए। 

Sunday, July 8, 2012

विवादों का दौर

देश्ा हो घर इस मामासय विवादों से घ्ािरा है। लोगों की महत्वाकांक्षांए उन पर भारी पड़ रही हैं। बेमतलब ही आरोप-प्रत्यारोप करते रहते हैं। विवशता यह है कि जो इन्हें नकारना चाहता है वह ऐसा कर नहीं सकते और जो इस बात का आनंद उठा रहे हंै उसका परिवार उस आनंद का भुगतान कर रहा है। क्या यह परिपाटी समाज को किसी चरम पर ले जा पाएगी या फिर इसका नामोनिशां तक नहीं रहेगा। हम जानते हैं कि सच्चाई को तलाशना और उसकी बुनियाद का मुआयना करना दोनों ही कठिन काम हैं। और यदि आप इसे करना चाहते हैं तो आपके हौसले आप से भी ज्यादा मजबूत होना चाहिए। विचारों में उत्श्रृंख्ालता नहीं बल्कि ठहराव हो, जो कि आप को संयंमित रखे और ऊर्जा प्रदान करे।
सबसे अहम बात यह है कि इस तरह की आम आदमी की क्यों हुई । वह ऐसे क्यों बदल गया। क्या उसकी मजबूरियों ने उसे तोड़ दिया  या फिर उसने विलासिता के चक्कर में यह सब स्वीकार कर लिया । यदि मजबूरी है तो इसका इलाज संभव है और यदि विलासिता है तो इसका कोई निदान नहीं।
हम सब जानते हैं कि हम जितना विलासी होंगे और पाने की इच्छा का अंत नहीं होगा बल्कि वह ड्रैगन की तरह मुंह ख्ोलती जाएगी और आप उसमें धंसते जाएंगे। जानते हुए भी हमारी आदत नहीं बदली और बस कुछ पलभर की खुशी के लिए जमाने के सुकून को आग  के हवाले कर दिया । इसे अपनी तृप्ति और दूसरों की हार का नाम दे दिया। क्या हमारा यही कर्तव्य है ? क्या हमें समाज में कुछ और करने का  या उसे कुछ अच्छा प्रदान करने की जरूरत नहीं? ये ऐसे सवाल हैं जो हर आदमी के मन में कभी न कभी आते हैं। वह इनसे विचलित भी होता है लेकिन सही मार्गदर्शन न होने की वजह से भृमित हो जाता है।

Thursday, July 5, 2012

सुहाना मौसम या कुछ........

गर्मी का मौसम भी समाप्त हो गया और रिमझिम शुरू हो गई। चिड़ियों का कलरव और झरनों  की कलकल से वातावरण बदल सा गया है। कुछ बच्चों का स्कूल में नया एडमिशन और कुछ पुराने से नए क्लास में पहुंच गए। किसानों ने बुवाई की तैयारी कर ली और साहुकारों ने अपनी गोदामों का जायजा लिया। इस तरह हर कोई अपनी तैयारी में जुटा है। 
पेशेवर भी इस मौसम में बचकर रहना चाहते हैं, क्योंकि डॉक्टर और अस्पताल दोनों ही स्वागत करने को बेताब हैं। स्कूल,कॉलेज और कोचिंग संस्थान लोगों को लुभाने के लिए नए-नए विज्ञापन दे रहे हैं।  सभी का मानना है कि समय रहते संभल जाओ वरना मुशीबत का सामना करना पड़ेगा।
अब दफ्तरों में देखें तो रंगाई,पोंछाई का काम तेज हो गया है। बॉश को शिकायत को मौका न मिले इसलिए पहले ही नोटिसबोर्ड लगा दिए गए। उनमें हिदायतें भी लिख दी गईं। आौर गलती करने पर जुर्माने का प्रावधान भी किया गया। आप भी देखिए सुहाना मौसम क्या-क्या परिवर्तन लेकर आया। 

Sunday, September 18, 2011

आंखों ही आखों में


कुद यूं ही हमारा भी सफर शुरू हुआ। छोटा सा ख्वाब था कि पढ़ाई पूरी होने के बाद सरकारी नौकरी करूंगा। इसके बाद फॉरेन ट्रिप। लगातार हम आगे बढ़ते रहे और इस तरह पढ़ाई पूरी हुई आर हम नौकरी में भी लग गए। इस तरह छोटा सा ख्वाब बड़ा हो गया। बदल गए मायने, अब हम अपने और परिवार के लोगों के बारे सोचने लगे। हमारी तरक्की के रूप में शादी हुई,  रिश्तेदार बढ़े, आमदनी बढ़ी। पर नजरिया जस का तस।
सोचने पर पता चलता कि जो हमने सोचा और जिस तरह से मिला वह मेहनत नहीं बल्कि समाज का उपहार है। इसी को गहराई से विचार करने पर लगा कि यह तो सब अपने आप हो गया। पर जब इसे दूसरे लोगों से पूछा तो पता लगा कि यह सब आमबात है और विकास का इससे कोई दूर-दूर तक का वास्ता नहीं।
सच्चाई और उसकी परख खुद से दूर करने का एक कारण बन न जाए, कोई नई उलझन तैयार न हो इसके लिए हमने एक विराम लिया।
उसे कह दिया नौकरी का स्थायित्व, पर यह हकीकत कतई न थी बल्कि विवश्ाता की एक परिभाषा बन रही थी। अब हम जो सोचते, उसे लोगों पर मढ़ने की कोशिश करते, इसकी वजह से हमारा बौद्धिक विकास होना बंद हो गया। क्योंकि हम तो हम हैं। पैसे मिल रहे हैं, खा रहे है .....अच्छे से रह हैं! बस इतनी सी दुनिया तक सीमित रह गए।
कभी उस ख्वाब की ओर नजर उठाकर देखने की कोशिश भी न की।
नतीजा सामने है जहां से चले वहीं ठहर गए। .............. फिर क्या.............

Tuesday, December 21, 2010

किताबों की दुनिया

जैसे किताबों की दुनिया अलग होती है उसी तरह उनसे उपजा विवाद भी अलग तरह का होता है। लेखक संकलन करता है। फिर उसके तथ्यों की समीक्षा करता है। इसके बाद वह किताब का टाइटल खोजता या सोचता है। तब कहीं जाकर एक किताब की थीम बनती है। जैसे-जैसे किताब के पन्न्े बढ़ते हैं लेखक का साहस और मजबूत होता जाता है। अब इन किताबों का बाजार या आम आदमी पर क्या असर होगा वह इस चीज को समय पर छोड़ देता है। जैसे ही उचित अवसर मिलता है। वह किताब आम आदमी के हवाले कर देता है। यह तो आम लेखक की बात होती है। पर हमारे देश की परंपरा कुछ हटकर है। यहां किताबें लिखने का शौके लेखकों के अतिरिक्त राजनीतिज्ञों को भी है। वह अपने शासन काल को याद करके किताबें लिखते हैं। जो बात आम आदमी तक नहीं पहुंची और वह रहस्य उसे उद्घाटित वह अपने किताब के माध्यम से करता है। दरअसल, वह किताब लिखने का काम याकि वृदधि अवस्था में करता है। या तो लूप लाइन में पहुंचने के बाद। अब आप सोचेंगे कि हमारे यहां बहुत सारे लेखक राजनीतिज्ञ हैं जो न तो बूढ़े हैं और न ही लूप लाइन में, फिर भी उन्होंने किताब लिखने की ठानी। तो दोस्तों मेरा अपना मत है कि जो बात वह कह नहीं सकते उसे महज किताबों का जरिया बनाकर कहते हैं। इससे उनके दो फायदे होते हैं। एक तो वे राजनीति के मैदान में चर्चित रहते हैं दूसरे अपने समकक्षियों को बिना कुछ ही निशाना बना लेते हैं। यदि राजनीतिक सरगर्मी बढ़ती है तो वे उसे इससे पल्ला झाड़ लेते हैं। और वे सफाई देने में जुट जाते हैं। कुछ ऐसे ही राजनीति पुरोधाओं के बारे में सुनिए

तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1 जुलाई 1954 को ही भारत-चीन सीमा पर बातचीत के दरवाजे बंद कर दिए थे। यह बात एजी नूरानी की नई किताब में कही गई है। किताब के मुताबिक पं। नेहरू ने बातचीत के सभी दरवाजे बंद कर दिए थे। 1960 में विवाद को खत्म करने के लिए भारत आए चाऊ एन लाई को भी टरका दिया था। इन दो घटनाओं के बाद भारत और चीन के बीच तनाव बढ़ा और 1962 में हुए भारत-चीन युद्ध की नींव पड़ी।

कानूनी मामलों के विशेषज्ञ एजी नूरानी सीमा संबंधित मसलों के विशेषज्ञ के रूप में भी जाने जाते हैं। नूरानी ने पुस्तक में पं। नेहरू के बयान को उद्धृत किया है, जिसमें उन्होंने कहा था 'हमारी अब तक की नीति और चीन से हुआ समझौता दोनों के आधार पर यह सीमा सुनिश्चित मानी जानी चाहिए। ऐसी जो किसी के साथ भी बातचीत के लिए खुली नहीं है। बहस के कुछ छोटे मसले हो सकते हैं, लेकिन वे भी हमारी ओर से नहीं उठाए जाने चाहिए।"

'इंडिया-चाइना बाउंडरी प्रॉब्लम (1846-1947) हिस्ट्री एंड डिप्लोमेसी" नाम की इस पुस्तक में बताया गया है कि भारत ने अपनी तरफ से आधिकारिक नक्शे में बदलाव किया गया था। 1948 और 1950 के नक्शों में पश्चिमी (कश्मीर) और मध्य सेक्टर (उत्तर प्रदेश) के जो हिस्से अपरिभाषित सीमा के रूप में दिखाए गए थे, वे इस बार गायब थे। 1954 के नक्शे में इनकी जगह साफ लाइन दिखाई गई थी।
किताब के मुताबिक 1 जुलाई 1954 का यह निर्देश 24 मार्च 1953 के उस फैसले पर आधारित था, जिसके मुताबिक सीमा के सवाल पर नई लाइन तय की जानी थी। किताब में कहा गया कि 'यह फैसला दुर्भाग्यपूर्ण था। पुराने नक्शे जला दिए गए।" एक पूर्व विदेश सचिव ने इस लेखक को बताया था कि कैसे एक जूनियर ऑफिसर होने के नाते खुद उन्हें भी उस मूर्खतापूर्ण कवायद का हिस्सा बनना पड़ा था। कयास लगाया जा रहा है कि वे पूर्व विदेश सचिव राम साठे ही थे, जो चीन में भारत के राजदूत भी रह चुके थे।

लेखक की जानकारी के मुताबिक नेहरू चाहते थे कि नए नक्शे विदेशों में भारतीय दूतावासों को भेजे जाएँ! इन्हें सार्वजनिक रूप से लोगों के सामने लाया जाए और स्कूल-कॉलेजों में भी इनका इस्तेमाल किया जाने लगे।

किताब में 22 मार्च 1959 को चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई के लिखे पत्र में नेहरू की हर बात को ' ऐतिहासिक रूप से गलत" बताते हुए नूरानी ने लिखा है कि 1950 तक भारतीय नक्शों में सीमा को अपरिभाषित बताया जाता था। जिन्नाा-इंडिया, पार्टीशन, इंडिपेंडेंटभारतीय जनता पार्टी के नेता जसवंतसिंह की मोहम्मद अली जिन्नाा पर लिखी किताब 'जिन्नाा-इंडिया, पार्टीशन, इंडिपेंडेंट" भी विवादों में घिरी रही। भाजपा ने तथ्यों पर उठे विवाद के कारण खुद को इस किताब से अलग कर लिया था। यहाँ तक कि लेखक जसवंतसिंह को भी भाजपा से निष्कासित कर दिया गया था, बाद में उन्हें पार्टी में ले भी लिया गया।

लज्जा और द्विखंडिताबांग्ला देश मूल की रहने वाली लेखिका तस्लीमा नसरीन को तो लगता है विवादों के कारण ही पहचान मिली है। 'लज्जा" और 'द्विखंडिता" जैसी उनकी किताबों ने मुस्लिम जगत में तूफान खड़ा कर दिया था। उन्होंने कई सालों से भारत में शरण ले रखी है।
माय कंट्री-माय लाइफभाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी की आत्मकथा 'माय कंट्री-माय लाइफ" के बारे में तात्कालिक प्रतिक्रिया काफी तीखी रही थी। आडवाणी पर आरोप लगाया गया था कि उन्होंने तथ्यों के साथ छेडछाड़ की है। उनके राजनीतिक विरोधियों ने इसे झूठ का पुलिंदा तक कहा। इसके बावजूद यह किताब काफी चर्चित हुई और खूब बिकी।
द सेटेनिक वर्सेजभारतीय मूल के ब्रिटिश लेखक सलमान रश्दी को अपनी किताब "द सेटेनिक वर्सेज" के कारण ही दुनियाभर में पहचाना जाता है। मुस्लिमों के बारे में कथित आपत्तिजनक टिप्पणियों के कारण इस किताब को भारत में प्रतिबंधित कर दिया गया था। उनके खिलाफ फतवा भी जारी किया गया और इसी कारण वे कई दिनों से छुपकर ब्रिटेन में रह रहे हैं।
अयोध्या 6 दिसंबर 1992अयोध्या पर पीवी नरसिंह राव की किताब भी चर्चित रही थी। यह किताब अयोध्या में जो घटा और जिन कारणों से घटा, उन पर तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव का नजरिया पेश करती है। संविधान की धारा 356 पर विस्तार से चर्चा करते हुए लेखक ने उन कारणों को बताने का प्रयास किया है, जिनके कारण उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू नहीं किया जा सकता था। नब्बे के दशक में लिखी गई यह किताब उनकी इच्छानुसार मरणोपरांत ही प्रकाशित की गई थी। यह पुस्तक आधुनिक इतिहास की एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना को समझने की दिशा में एक प्रयास है।
शिवाजी : हिन्दू किंग इन इस्लामिक इंडियाशिवाजी पर लिखी इतिहासकार जेम्स लेन की किताब "शिवाजी : हिन्दू किंग इन इस्लामिक इंडिया" को लेकर तो महाराष्ट्र में लोग सड़क पर उतर आए थे। मुंबई समेत कई शहरों में हिंसात्मक घटनाएँ तक हो गई थीं। इस किताब पर सबसे ज्यादा आपत्ति शिवसेना को थी।
इंडियन कंट्रोवर्सी" और अ सेक्यूलर एजेंडाजाने-माने अंग्रेजी पत्रकार और भाजपा नेता अरूण शौरी ने भी 'इंडियन कंट्रोवर्सी"और 'अ सेक्यूलर एजेंडा" जैसी किताबें लिखकर खुद को विवादों में फंसा लिया था। धर्म निरपेक्षता को तलाशती इन दो किताबों को राजनीतिक के साथ धार्मिक आलोचना भी झेलना पड़ी थी।इंडिया विन्स फ्रीडमआजाद भारत के जाने-माने नेता और शिक्षाविद् मौलाना अबुल कलाम आजाद की ये किताब लंबे समय तक प्रतिबंधित रही। इस किताब में देश की आजादी और बँटवारे को लेकर कुछ ऐसे प्रसंगों का उल्लेख किया गया था, जो कांग्रेस को नागवार गुजरे थे। फ्रीडम एट मिडनाइटदेश की आजादी और बँटवारे को आधार बनाकर डॉमिनिक लापियर और लौरी कोलिंस की इस किताब को तथ्यों के मामले में सबसे अधिकृत माना जाता है। कई मामलों में ये किताब काफी चर्चित भी रहीं। इस किताब ने आजादी के संघर्ष के दौरान देश के राजनीतिक हालात और बड़ेे नेताओं की भूमिका को काफी हद तक रेखांकित किया था। यही कारण था कि कांग्रेस ने इस किताब पर आँखें तरेरी थीं।ट्रुथ लव एंड अ लिटिल मैलिस जाने-माने स्तंभ लेखक खुशवंत सिंह ने अपनी इस आत्मकथा के जरिए भाजपा नेता मेनका गाँधी और इंदिरा गाँधी के रिश्तों पर कई आपत्तिजनक टिप्पणियाँ की थीं। मेनका ने उन पर मुकदमा भी दायर कर दिया था। इस कारण किताब का विमोचन कई साल लटका रहा। अ कॉल टू ऑनरयह भाजपा नेता जसवंत सिंह की पहली किताब थी। उनकी इस किताब (अ कॉल टू ऑनर) ने भी काफी विवाद खड़ा किया था। इसमें लेखक ने दावा किया था कि कांग्रेस के राज में प्रधानमंत्री के दफ्तर में एक विदेशी जासूस का डेरा रहता था। उन्होंने इस जासूस का नाम उजागर नहीं किया, पर उनकी इस टिप्पणी की राजनीतिक हलकों में खासी प्रतिक्रिया हुई थी। मोहि कहां विश्रामकांग्रेस नेता और राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले अर्जुनसिंह की आत्मकथा 'मोहि कहाँ विश्राम" का सबसे ज्यादा विरोध तो कांग्रेस के नेताओं ने ही किया। इस किताब में अर्जुनसिंह ने पार्टी की अंदरूनी हालत और अपनी उपेक्षा का उल्लेख किया था।द लास्ट मुगलमुगल काल के दौर के इतिहासकार विलियम डेलरिम्पल की किताबें भी विवादित रहीं हैं। विलियम डेलरिम्पल की 'द लास्ट मुगल" को 1857 पर लिखी गई किताब नहीं माना जा सका और इसी को लेकर विवाद भी हुआ! क्योंकि, यह किताब सिर्फ जफर और दिल्ली पर केंद्रित थी, बाकी हिन्दुस्तान के हालात का उसमें कहीं जिक्र तक नहीं आता! सच ए लांग जर्नीभारतीय मूल के कनाडाई लेखक रोहिंटन मिस्त्री की किताब 'सच ए लांग जर्नी" पर काफी विवाद उठा था। यह मसला शिवसेना की तरफ से उठाया गया था। यह किताब मुंबई विश्वविद्यालय में बीए के पाठ्यक्रम का हिस्सा थी। इसमें दक्षिणपंथियों के बारे में जो विचार व्यक्त किए गए हैं, वे शिवसेना को नागवार गुजरे। महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने भी इस मामले में शिवसेना का साथ दिया था।साभार: नई दुनिया

Saturday, December 18, 2010

सफर में सबसे आगे

राह और राही दानों ही एक दूसरे के पथिक होते हैं। यदि राही भटक रहा हो तो राह उसे सही दिशा में लाता है। और यदि राह भटक जाए तो राही उसे दुरुस्त करने का काम करता है। अब आप सोच कर परेशान न हों कि राह और राही के बीच में मैं आपकों झुला रखंूगा। बस थोड़ा सब्र करो मैं आपको मंजिल तक ले चलता हूं। गांव की बारात थी। ऊपर से बारिश का मौसम था। हम और हमारी मौसी का लड़का यानि रिश्ते का मौसेरा भाई दोनों ही बाइक से बारात का मजा लेने के लिए चल निकले। हमें शायद ही पता थ्ाा कि रास्ते में इतनी मुशीबतों का सामना करना पड़ेगा। पर हुआ ऐसा ही। पहली घटना- हम अपनी तैयारियों में इतने मशगूल हो गए कि समय का खयाल ही न रहा। और हम घर से ही देर से निकले ।ह।हल्की रिमझिम बारिश हो रही थी। बाइक में दोनों ही तेजी से मंजिल की ओर बढ़े जा रहे थे। रास्ते के खड्डे और कीचड़ ये सब हमारे सफर के गवाह बन रहे थे। इन्हीं गवाहों के बीच हमारे लिए पहली मुशीबत खड़ी हो गई। और बाइकी की हेडलाइट बिगड़ गई। फिर भी हम निराश नहीं हुए। और अपने अनुमान के मुताबिक चल रहे थे। कुछ ही किलोमीटर का सफर हुआ था और घ्ानघोर अंधेरा हो गया। अब हमें चारो ओर रास्ते दिखाई देने लगे। हम तय नहीं कर पा रहे थ्ो जाएं किस ओर । जहां भी हमें रोशनी दिखाई देती उसी ओर रुख कर लेते। अब हम बाइक पर नहीं पैदल चल रहे थे और बाइक हमारे लिए बोझ बन गई थी। उसे घसीटते हुए हम थकान से चूर हो गए। राहगीर और गांव वालों की मदद से हम धीरे-धीरे अपने जश्न वाले गांव के नजदीक पहुंच गए। दोनांें ही इस बात का पर चर्चा कर रहे थे कि मौसम अच्छा न हुआ तो अब कभी भी किसी की बारात में न जाएंगे। किसी कदर कीचड़ और रास्ते में भटकते हुए हम बारात वाले गांव गए। वहां देखा तो अंधेरा ही अंधेरा । ऐसा आलम देखकर बारिश से भीगे होने के बाद भी गर्मी लगने लगी और तो और जलालत भी महसूस हुई।फिर भी हम जनमास में पहुंचे । लोगों ने आवभगत में कोई कोर कसर न लगाई। चाय-नास्ता हुआ । खाना-पीना भी हुआ। अब तो आराम करने के लिए कोई सूखी जगह की तलाश थी पर वह नशीब न होने वाली थी।यह थी दूसरी हिट - बारात में पहुंचने के बाद जब बाइक स्टार्ट की तो एक ही किक में स्टार्ट हो गई और लाइट भी जल गई। यह देखकर अच्छा खासा हंसी मजाक हो गया। और रतजगा करने के बाद किसी भी तरीके से सुबह हुई। यह थी तीसरी हिट- बारात बिदा होने हम भी चले कि कुछ ही दूर में पेट्रोल खत्म हो गया। और हम पेट्रोल की तलाश में फिर पैदल चल निकल पड़े। दो किलोमीटी चलने के बाद हमें दुकान मिली । लेकिन उसके पास पेट्रोल नहीं था। वह घर से पेट्रोल लेकर आया और हमें दोगुने दाम पर पेट्रोल दिया। इस तरह हमारा न भूलने वाली बारात का सफर पूरा हुआ। दोनों ही घर पहुंचे। और अपनी मरम्मत में जुट गए। सबसे दयनीय हालत तो पैरों की थी, जिसे जूते भी न बचा पाए। काटों ने पैरों को जगह-जगह पर निशाना बनाया था । ये कांटे महीनों हमें बारात के जश्न की याद दिलाते रहे।

सचेत रहो

सुनने में अटपटा लगता है पर यह सच है कि सच्ची मेहनत और लगन से काम करने वाले को सफलता मिलती है। वजह कुछ भी हो, हकीकत मेहनत रंग लाती है। न किस्मत होती आर न ही पक्षपात, बस उसका काम उसे मुकाम दिला जाता है। हमारे पास बहुत सारे लोग हैं जो रह-रह कर किस्मत की बातें करते हैं। कहते हैं जब समय आएगा तो मनचाही कामना पूरी हो जाएगी। और यदि उनका यह जुमला एक दो बार हिट हो गया तो फिर वह तो पहले परिवार, फिर समाज और अंतत: देश यानि सभी के लिए उपदेश हो जाते हैं। पर कड़वी सच्चाई यह है कि ये जुमले हमेशा हर किसी के साथ हिट नहीं होते हैं। पर वह इन जुमलों से सीख लेता है और जुड़ जाता है उनके सुझाए रास्ते से। मैं यह नहीं कहता कि किसी के 'एक्सपीरियंस का विश्वास मत करो। सिर्फ इतना कहता हूं विश्वास करो तो सिर्फ और सिर्फ मेहनत का। 'हाल ही मेरे एक दोस्त ने ऊंची बुलंदियों को छुआ । मुझे बहुत अच्छा लगा -चलो अपने बीच का काई तो श्ािखर पर पहुंचायह घटना खुद के आत्मवलोकन के बाध्य भी कर सकती है। और हमारे लिए प्रेरणादायी भी हो सकती है। पर हमें इस कड़वी सच्चाई को देखना और मानना होगा। दोस्त की लगन तो देखी, पर उसे कभी अनुसरित नहीं किया। इस बात का गुमान कब तक रखूं। कभी न कभी तो अपने पैरों को आगे लाना होगा और सच्चाई से दो चार भी होना पड़ सकता है। तब क्या हमारे पास इन सारे सवालों को दोहराना का मौका मिलेगा या फिर वह समय हमारे पास लौट कर आएगा कि हम अपनी गलतियों को सुधार लें। बस इस आस के साथ कि हकीकत और सपने में फर्क कर मैं अपने समय का सदुपयोग करूंगा।